पिछले कई दिनों से सियासत के कई रंग देखने को मिले। सड़क से लेकर संसद तक। हर जगह सियासत ही सियासत। चैनलों पर वालीवुड की सियासत। सड़क पर राजनीति की सियासत। मानो सियासत को जबरन अंगीकार करने- कराने की होड़ सी मची हो। चैनलों पर चल रहे सुशांत-रिया प्रकरण ने सभी मुद्दों को दूर धकेल दिया है। कोरोना महामारी, चीन समेत सभी मुद्दे गौड़ हो गए हैं।
करीब एक दशक पहले बात है। एक पत्रकारवार्ता के बाद दूसरे अखबार के पत्रकार मित्र से खबर पर चर्चा होने लगी कि खबर में किस बिंदु को उठाया जाए.....कारण, खबर राष्ट्रीय स्तर की थी....लिहाजा सोच विचार कर ही लिखना था। मैने मन ही मन तय कर लिया। आकर ऑफिस में संपादक जी से बात की और खबर को किस बिंदु पर उठाना है इसके बारे में चर्चा भी कर ली। खबर लिखने के दौरान ही मेरे मित्र का कॉल आया बोले, क्या एंगल लिये पत्रकारिता धर्म के नाते मैने एंगल तो नही बताया मगर यह जरूर कहा कि आपसे जो चर्चा हुई है उसी से मिलता जुलता कोई एंगल लूंगा, यह सुनते ही वह बोल पड़े, देखा गुरु हम जो पढ़ाएंगे, वही जनता पढेगी, आपको जो भी लिखना है लिखिए, सनसनीखेज खबरों की होड़ में चैनलों पर चल रही खबर को देख उस मित्र पत्रकार की बात याद आ गई। क्या सचमुच आज जो दौर है उसमें जो दिखाया जा रहा है उसे देखना लाचारी है? हो भी क्यों न? अंग्रेजी समाचार चैनल भले ही चीन, कोरोना व अन्य प्रमुख मुद्दे पर चर्चा कर रहे हो मगर उनको देखने वालों की संख्या हिंदी चैनलों के सापेक्ष कम ही है। ऐसे में हिंदी भाषी क्षेत्रो में रहने वालो की इससे बड़ी लाचारी और क्या हो सकती है?
सियासत के कुछ ऐसे ही रंग बीते सप्ताह देखने को मिले। सत्तासीन बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मोत्सव को "भब्यता" के साथ "उत्सव"के रूप में शहर से गांव तक मनाने में जुटी रही। वही बेरोजगारी, कृषि विधेयक समेत अन्य मुद्दे को लेकर सपा और कांग्रेस के कार्यकर्ता सड़क पर थे। करीब साढ़े तीन साल बाद पहली बार सड़क पर "दोतरफा" सियासत की धार तेज होती नजर आयी। संगठन की मजबूत जमीन तैयार कर चुकी बीजेपी विपक्ष के किसी आंदोलन से बेफिक्र थी।
मगर शहर से गांव तक जिस तरह से सपा कार्यकर्ताओं ने संघर्ष का बिगुल फूंका। जगह-जगह लाठियां खाई उसे देखकर आने वाले दिनों में यूपी की सियासत में नए आंदोलन की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है। इस आंदोलन से जनमानस में यह चर्चा होने लगी है कि सरकार को घेरने के लिए विपक्ष ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है। यू कहें तो यूपी की सियासत के लिए अभी से चुनावी बिसात की गोटियां सजाने के लिए सत्ता से लगायत विपक्ष तक लग गए है। राहुल व प्रियंका गांधी हर मुद्दे पर लगातार केंद्र से लगायत राज्य सरकार पर सवाल उठाने से नही चूक रहे। इतना सब कुछ होते हुए भी सभी मुद्दे सुशांत और रिया की खबरो के आगे कही ठक-चुप से गए।
बहरहाल, 2022 में यूपी में विधानसभा चुनाव होने है। अभी लगभग डेढ़ साल का समय है, इसके पहले पंचायत चुनाव, एमएलसी चुनाव होने है, इसकी तैयारी भी शुरू हो चुकी है। बीते दो दशकों के विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो कोई भी सत्ता दल हो या विपक्ष। लगभग डेढ़ साल पहले ही चुनावी तैयारी शुरू कर देते है। साढ़े तीन साल सरकार के कामकाज की समीक्षा करके ही विपक्ष आंदोलनों की रूपरेखा तैयार करता है। शायद विपक्षी दलों ने इस बार भी कुछ ऐसा ही शुरू करने के संकेत दे दिए है।
गौर करे, विपक्ष ने बेरोजगारी व कृषि विधेयक के मुद्दे का विरोध करने के लिए पीएम मोदी के जन्मदिन पर ही सड़क पर उतरने चुना। जबकि जन्मदिन को बीजेपी ने "सेवा सप्ताह" नाम दिया। जिसके जरिये वह शहर से गांव तक अलग अलग आयोजन करके जनमानस के बीच यह बात पहुँचाने ने में जुटी रही कि "विकास" का दूसरा नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ है।
यही कारण है कि पार्टी ने सात दिनों तक अलग अलग आयोजन किये। कभी सफाई तो कभी ब्लड डोनेशन, गरीबो को राशन आदि का कार्यक्रम। यह सभी आयोजन किसी "उत्सव" से कम नही दिखे। बीजेपी ने अपनी ताकत दिखाने ने भी कोई कमी नही छोड़ी। वेसे भी , मजबूत संगठन के बदौलत पार्टी नेता इसी "ठसक" में भी है और चल रहे विपक्ष के किसी सियासत व आंदोलन को वह तरजीह नही दे रहे। यह अलग बात है कि सियासत में कभी कभी विपक्ष को हल्के लेना भी भूल साबित होता रहा है। राजनीति में इसके कई उदाहरण भी है।
अब बात समाजवादी पार्टी की। भले ही यूपी की सत्ता से सपा बेदखल हो मगर उसके कार्यकर्ताओ का जुझारूपन हर कोई जानता है। हर मुद्दे पर "भिड़" जाने वाले सपाइयों का जुझारूपन तेवर 17 तारीख को जिला मुख्यालय पर दिखा। बेरोजगारी समेत अन्य मुद्दे पर धरना प्रदर्शन करने पहुंचे सपा के युवा कार्यकर्ताओ पर जब लाठीचार्ज हुआ तो तमाम कार्यकर्ता वही बैठे रह गए। अमूमन पुलिस की लाठी से बड़े बड़े हिल जाते है। मगर कार्यकर्ताओ के जुझारूपन को देख अधिकारी और राहगीर भी हैरान रह गए। कई सालों बाद सपा अपने "रौ" में दिखी। कार्यकर्ताओ को बड़े नेताओं का साथ और समर्थन भी मिला। अस्थाई जेल से छूटने के बाद जिस तरह से जुलूस और नारे बाजी करते सपाई सड़क पर निकले, वह आने वाले दिनों की सियासत की एक झलक थी।
बीते दिनों सोनभद्र में (उभाकांड) को लेकर कांग्रेस ने जिस तरह से सरकार को घेरा। उसे देखते हुए यह चर्चा होने लगी थी कि आने वाले दिनों में यूपी में प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस एक नए कलेवर में दिखेगी। मगर उस घटना के बाद कांग्रेसी भले स्थानीय मुद्दे पर विरोध जताते रहे हो, मगर एक मजबूत विपक्ष के होने के नाते विरोध के सियायत की जो धार होनी चाहिए उसमे वह सुस्त पड़ गई। खासतौर पर जब कोरोना कॉल में केंद्र से लगायत राज्य सरकार पर विपक्ष अपने अपने तरीके से हमला कर रहे हो, बेरोजगारी, निजीकरण समेत तमाम मुद्दे हो , ऐसे में कांग्रेस को यूपी में दरख़्त मजबूत करने के लिए नई रणनीति बनानी होगी।