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दूरदर्शन पर योगीजी!

के. विक्रम राव, वरिष्ठ पत्रकार

 11/Jan/22

दूरदर्शन (78 जनवरी 2022) द्वारा आयोजित लखनऊ ''डीडी कॉन्क्लेव'' से अपेक्षा थी कि ताज होटल सभागार से निकल कर श्रोताओं और दर्शकों को राज्य में हो रहे परिवर्तन के बारे में ज्ञान तथा सूचना पर्याप्त मिलेगी। चर्चा व्यापक और प्रवाहमय होगी। यह संभव था। पर सोच के खांचे से बाहर आना पड़ता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मांगने पर नहीं मिलती, हासिल करना पड़ता है। इसीलिये निजी चैनल से प्रतिस्पर्धा में सरकारी तंत्र पिछड़ जाता रहा है। ऊपर से एक निजी व्यापारी मीडिया घराने को सहआयोजक बनाकर दूरदर्शन ने अपनी विश्वसनियता पर दाग लगा लिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुख्यवक्ता थे। कार्यक्रम का शीर्षक था : ''कितना बदला यूपी?'' मगर संवाद सुनकर लगा कि यह सियासी तौर पर प्रगतिशील प्रदेश अभी भी कच्छप रफ्तार पर ही है। एक तरफ अपनी बात पेश करने में योगीजी को अपरिमित लाभ हुआ। बहस में शिरकत न कर, सपा प्रमुख अखिलेश यादव का बड़ा घाटा हुआ। मौका चूक गये। हालांकि पार्टी प्रवक्ता दीपक मिश्र ने फायर बिग्रेड की भूमिका निभाई। मायावती ने बजाये स्वयं आने के अपने महासचिव वकील सतीश चन्द्र मिश्र को भेजा। उनका एजेंडा केवल अपनी विप्र जाति के बारे में ही जिरह करना रह गया है। मानों ब्राह्मण ही वोटर हो।

योगीजी का खेला देखकर लगा कि मानो विश्वकप के लिये वे बैटिंग कर रहे हो। हर गुगली को बाउण्ड्री पार पहुंचा रहे थे।  मगर दूरदर्शन ने भी सहमसहम कर अम्पा​यरिंग की। मसलन योगीजी के लिये मैदान खुला छोड़ सकते थे। मुख्यमंत्री सवाल का जवाब देने में सक्षम ही नहीं, कुशल और प्रवीण भी हैं। साधारण, माकूल प्रश्न पुछवा कर आयोजकों ने टीवी शो के आम नियमों को नहीं माना। अर्थात दूरदर्शन ने सबसे बड़े प्रदेश के मुखिया, कई बार सांसद रहे और एक बड़े आस्था केन्द्र के जटिल प्रबंधन के अनुभवी नेता को बहुत कमतर आंका। शो का प्रवाह अधिक गतिमय होता यदि तैराक की तेजी को बांधा नहीं जाता। योगीजी ने विपक्ष पर खूब निशाना लगाया। बोले कि विरोधी दलों में आपसी बातचीत तक बंद कर दी। तो अब भाजपा पर विभाजित हमला कितना असरदार कर पायेंगे? यह बड़ा सटीक आंकलन है। गैरभाजपाई पार्टियां परस्पर हानि पहुंचाने से बचते हुए महाबली भाजपा को तंग कर सकती थीं। यथा प्रत्याशियों के चयन में, अभियान की तीव्रता में, मुद्दों के चयन में। आखिर सत्तारुढ़ पार्टी को ढाल की दरकार होती है। हमलावर विपक्ष के पास धारधार तलवार रहती ही है। इसके लिये दूरदर्शन ने अच्छा मौका मुहैय्या कराया था। उपयोग नहीं हो पाया।

आज मंच का अधिकतम मुनाफा भाजपा ने कमाया। अपने कार्यक्रम, उपलब्धि और विपक्ष की कमजोरियों को उजागर कर के। दंगा, कानून व्यवस्था, माफिया पर जमकर हमला, आस्थास्थलों का निर्माण आदि पर एक अध्ययनशील परीक्षार्थी की भांति योगीजी दनदनादन बोलते रहे। विपक्ष चाहता तो सत्तारुढ़ पार्टी के आं​तरिक द्वंद पर टीकाटिप्पणी करता, सरकार और पार्टी के बीच विचारविषमता पर केन्द्रित रहता। मतदान की घोषणा के बाद अब तो यह अवसर गया। रैलियां भी सीमित होगी। महामारी के कारण। दिन ही कितने मिलेंगे? फिलहाल जब समय अनुकूल होता है तो समस्या भी सुअवसर बन जाता है। ऐसा ही हो रहा है।

एक श्रमजीवी पत्रकार के नाते मेरी यह निश्चित अवधारणा है कि सरकारी मीडियातंत्र को भी वृक्षवाली प्राकृतिक आक्सीजन पाने का प्रयास करना चाहिये। सिलिण्डर पर हमेशा निर्भर नहीं रहना चाहिये। स्वास्थ्य तभी सुधरता है। आत्मशक्ति बढ़ती है। बीबीसी का उदाहरण हैं। वायस आफ जर्मन रेडियो तथा डच टीवी का भी। उनमें परिपक्वता झलकती है। बेड़ियों को कमजोर, यदि तोड़ने का सामर्थ्य न हो तो, करने हेतु यत्न तो होना चाहिए। प्रश्न उठता है कि दूरदर्शन की आजादी का महोत्सव कब आयेगा?


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