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अयोध्या में मन्दिर निर्माण के लिये प्रतिबद्ध भूमि और योजना रामालय न्यास को देने की सरकार से करेगा मांग



 15/Nov/19

सन् 1994 में अयोध्या की श्रीरामजन्मभूमि में भव्य-दिव्य और शास्त्रोक्त श्रीराममन्दिर बनवाने के उद्देश्य से देश के मूर्धन्य धर्माचार्यों की सदस्यता में अयोध्या श्रीरामजन्मभूमि रामालय न्यास का गठन किया गया था। न्यास आज भी जीवित है और मन्दिर निर्माण के लिये प्रतिबद्ध है। श्रीराममन्दिर निर्माण के लिये भूमि और योजना को ट्रस्ट को दिये जाने के सम्बन्ध में हम सरकार से आग्रह करने जा रहे हैं। हमारे आग्रह के लिये उच्चतम न्यायालय के निर्णय से पर्याप्त आधार प्राप्त हैं। जैसे--

1. माननीय सर्वोच्च न्यायालय में अपने फैसले के पैराग्राफ 802 में कहा है कि एक्वीजीशन आफ सर्टेन एरिया एट अयोध्या एक्ट 1993 की धारा 6 केन्द्रीय सरकार को अधिगृहीत भूमि को किसी ऐसे अथोरिटी बाडी निकाय या ट्रस्ट को देने के लिए प्राधिकृत करती है जो कि सरकार द्वारा आरोपित शर्तों को मानने का इच्छुक हो।

2. फैसले के पैराग्राफ 803 में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को यह आदेश दिया है कि उक्त अधिनियम की धाराओं 6 7 के द्वारा प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए सरकार कोई ट्रस्ट स्थापित करे अथवा कोई अन्य समुचित कार्यनिधि स्थापित करे जिसको कि वाद संख्या 5 में डिक्रीड न्यायादेशित भूमि दी जा सके।

3. माननीय न्यायालय के उपर्युक्त दो पैराग्राफों से स्पष्ट है कि न्यायादेशित भूमि न तो श्रीरामजन्मभूमि वाद सं 5 के वादी सं 3 देवमित्र को दी गयी है और न ही श्रीरामजन्मभूमि न्यास को दी गयी है। बाकी सम्पूर्ण भूमि भगवान् श्रीराम के हित में मन्दिर निर्माण हेतु उक्त 1993 के अधिनियम की धारा 6 और 7 के अनुसार स्थापित किये जाने वाले ट्रस्ट को देने का आदेश दिया गया है।

4. उक्त अधिनियम की धारा 6 में यह कहा गया है कि उस 1993 के अधिनियम के पारित किये जाने के बाद बनाये गये ऐसे किसी प्राधिकारी या अन्य निकाय या किसी ट्रस्ट के ट्रस्टियों को अधिगृहीत भूमि दी जाएगी जो सरकार के नियमों और शर्तों का पालन करने के इच्छुक हों। धारा 7 के अनुसार अधिगृहीत भूमि सम्पत्ति का प्रबन्धन वही प्राधिकारी, निकाय अथवा ट्रस्ट करेगी जिसे भूमि दी जाएगी।

5. निर्णय के पैराग्राफ 805 - 2 में वाद सं 5 की प्रार्थना अ और ब के अनुसार न्यायादेश पारित किया है। वाद की प्राथना अ में यह उद्घोषणा मांगी गयी है कि संलग्न 1, 2 और 3 में सीमांकित भूमि देवताओं की है। वाद की प्रार्थना ब में प्रतिवादियों को निरन्तर निषेधाज्ञा द्वारा रामजन्मभूमि पर मन्दिर बनाने में बाधा देने से रोक देने का अनुतोश मांगा गया है। ऐसी स्थिति में यह स्पश्ट है कि भूमि किसी रामजन्मभूमि न्यास को देने का न तो अनुतोश मांगा गया था और न ही दिया गया है।

6. निर्णय के पैराग्राफ 805 - 2 - 1 में तीन महीने के भीतर अधिनियम की धारा 6 7 के प्रावधानों के अनुरूप ट्रस्ट, प्राधिकरण या निकाय हेतु योजना बनाकर उसे भूमि हस्तान्तरित करने को कहा गया है। उक्त पैराग्राफ 805 की कण्डिका 2 में ऐसे किसी ट्रस्ट, प्राधिकरण या निकाय को भूमि को देने को कहा है जो धारा 6 7 के अनुरूप बनाया गया हो। वहीं कण्डिका 3 में कहा गया है कि विवादास्पद भूमि का कब्जा केन्द्र सरकार के रिसीवर के अधीन तब तक बना रहेगा जब तक कि 1993 की अधिनियम की धारा 6 के प्रावधानों के अनुरूप यह किसी ट्रस्ट या अन्य निकाय को नहीं दी जाती।

7. पैराग्राफ 806 में कहा गया है कि सभी अपीलों का निस्तारण पैरा 805 में दिये गये न्यायादेश के अन्तर्गत किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि अखिल भारतीय श्रीरामजन्मभूमि पुनरुद्धार समिति अपील संख्या 6569 वर्श 2011 भी उक्त आदेश के अन्तर्गत मान्य की गयी है।

अब जबकि निर्णय हो चुका है कि धारा 6 7 के अन्तर्गत बनाये गये किसी ट्रस्ट को भूमि दी जाए और उक्त अधिनियम की धारा 6 के प्रावधानों के अनुरूप शंकराचार्य जी की अध्यक्षता में बनाये गये रामालय ट्रस्ट का अस्तित्व वर्तमान है जो कि सरकार के द्वारा उचित शर्तों और नियमों का पालन करने का इच्छुक है। तब निश्चित रूप से भूमि इसी न्यास को दी जानी चाहिए।

9. सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता समिति बनायी थी जिसका उल्लेख निर्णय के पैराग्राफ 32 में किया गया है उसमें यह भी कहा गया है कि वक्फ बोर्ड और कुछ पक्षकारों ने एक सेटेलमेण्ट हस्ताक्षरित किया गया था जो कि 16 अक्टूबर को कोर्ट के सामने रखा गया। उक्त पैराग्राफ की अन्तिम तीन पंक्तियों में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थों एवं समझाता हेतु कार्य करने वाले पक्षकारों जिसमें अखिल भारतीय श्रीरामजन्मभूमि पुनरुद्धार समिति भी थी की बडे चाव से आग्रह के साथ प्रशंसा ङभी की है ऐसे में जबकि उक्त समिति और श्री रामालय ट्रस्ट के प्रधान एक ही न्यासी अर्थात् जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारका षारदापीठ व ज्योतिष्पीठ के स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज हैं न्यायादेशित भूमि मन्दिर निर्माण हेतु रामालय ट्रस्ट को दी जानी चाहिए।

10. उक्त निर्णय के एडेण्ड्रम के पैराग्राफ 1 से 140 में समिति के विद्वान् अधिवक्ता पी एन मिश्र के तर्कों के आधार पर विवादास्पद स्थल को श्रीरामजन्मभूमि माना गया है। हमारे अधिवक्ता के तर्कों को निर्णय के पैराग्राफ 54 से 77 में भी विस्तार से स्थान दिया गया है। पैराग्राफ 550 में हमारे अधिवक्ता के विद्वत्तापूर्ण सहयोग के प्रति माननीय न्यायालय ने आभार व्यक्त किया है।

11. उक्त निर्णय के एडेण्डम के पैराग्राफ में अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती के द्वारा रामजन्मभूमि के स्थल निश्चय के लिये दिये गये प्रमाणों का विस्तार से उल्लेख किया गया है और निर्णय में अनेक स्थानों पर उल्लेख भी किया गया है। श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत विगत अनेक वर्षों से न्यायालय में चल रहे अयोध्या की श्रीराम जन्मभूमि के विवाद पर त्वरित सुनवाई करने और उद्घोषित समयावधि में निर्णय सुना देने के लिये देश के उच्चतम न्यायालय की जितनी सराहना की जाये, कम है। हम इस तत्परता के लिये उच्चतम न्यायालय को अयोध्या श्रीरामजन्मभूमि रामालय न्यास की ओर से अभिनन्दन करते हैं और उनके द्वारा दिये गये निर्णय का स्वागत करते हैं।

बीते कल दिये गये हमारे वक्तव्य आजतक चैनल में दिखाई गई बातों पर आधारित थे। जिनमें कुछ भूल थी। सम्भवतः सबसे पहले लोगों तक जानकारी उपलब्ध कराने की अपनी सदिच्छा के चलते वे खबरों की बारीकियों की पुश्टि न कर पाये होंगे। जैसे कि उन्होंने यह दिखाया था कि भूमि श्रीरामजन्मभूमि न्यास को दी गई तथा इसी आधार पर हमने वक्तव्य दिये थे पर रात्रि में हमने पूरे निर्णय का त्वरित अवलोकन किया और अब प्रामाणिक रूप से कुछ कहने की स्थिति में हैं। फैसले के गुण यह हैं कि वह एक प्रतिबद्ध सुनवाई के बाद आया है, एकमत से दिया गया है और समयलक्षी है। पर इसी के साथ फैसले के आलोच्य बिन्दु भी हैं जिन पर एक एक कर हम विचार करते हैं --

समझौते जैसा लग रहा निर्णय वास्तव में यह निर्णय निर्णय कम समझौता अधिक प्रतीत होता है । जैसा समझौता उच्च न्यायालय के द्वारा किया गया था कि विवादित स्थल को श्रीरामजी की जन्मभूमि मानने के बाद भी उस भूमि का एक तिहाई टुकड़ा मुस्लिम पक्ष को दे दिया गया था, जो कि एक तरह का समझौता था। उच्चतम न्यायालय के निर्णय में अन्तर इतना ही है कि तीन की जगह दो भाग किये गये हैं और मुस्लिमों का भाग भूमि का परिमाण बढ़ाकर अलग कर दिया गया है। अच्छा होता कि न्यायालय जिसका हक है उसी को भूमि देता।

जब मस्जिद ही सिद्ध नहीं हुई तो पांच एकड़ क्यों?

यह बात भी विचारणीय है कि जब वहां मस्जिद होना सिद्ध ही नहीं हुआ तो फिर पांच एकड़ जमीन किस आधार पर दी गई। यदि यह मस्जिद के तोड़े जाने का मुआवजा है तो मस्जिद का होना प्रमाणित होना चाहिये था जो नहीं है।

झगड़े की आशंका तो बनी ही रहेगी ।

यदि यह माना जाये कि झगड़ा बचाने के लिये उन्हें अयोध्या में पांच एकड़ जमीन देने को कहा गया है तो यह गलत होगा क्योंकि जब वे पांच एकड़ जमीन में मस्जिद बनायेंगे तो ढेरों मुसलमान वहां की यात्रा करने लगेंगे। हिन्दुओं के सबसे बड़े तीर्थस्थल अयोध्या में मुस्लिमों की भीड़ भी उपस्थित हो जायेगी और रोज-रोज का झगड़ा आरम्भ होने की बहुत अधिक सम्भावना हो जायेगी। अयोध्या में हुई थोड़ी भी नोक-झोंक के समाचार देश के दूसरे हिस्सों में अधिक प्रभाव डालेंगे। तब झगड़ा बचने की जगह बढ़ ही जायेगा।

हिन्दुओं ने नहीं, भ्रमित लोगों ने तोड़ा था ढांचा विवादित भूमि पर जो ढांचा था जिसे हिन्दू मन्दिर और मुसलमान मस्जिद कहते थे। इसलिये कोई हिन्दू या मुसलमान उसे तोड़ नहीं सकता था। कुछ लोगों ने राजनीतिक पुट देकर तेल लगाओ डाबर का नाम मिटाओ बाबर कानारा लगवाकर भ्रमित कर दिया और उन भ्रमित लोगों ने उस ढांचे को तोड़ दिया जो कि आज तक पहचाने नहीं जा सके हैं।

हिन्दुओं के दर्द को स्थान नहीं

हम हिन्दुओं को इस बात का दुःख है कि उच्चतम न्यायालय ने मुसलमानों के दर्द को तो समझा और उन्हें मुआवजे के रूप में पांच एकड़ भूमि देने का आदेष किया पर उन्होंने इस बात का संज्ञान नहीं लिया कि उसी दिन उसी समय विवादित ढांचे के साथ ही साथ अविवादित रूप से हिन्दुओं का राम चबूतरा, सीता-रसोई, वराहमूर्ति, हनुमान मन्दिर और पहले गुम्बद में माता कौशल्या की गोद में रामजी की मूर्ति आदि उन्हीं भ्रमित लोगों की ओर से तोड़ दिये गये। हिन्दुओं की जो क्षति, जो पीड़ा हुई है उसे भी उच्चतम न्यायालय को समझना चाहिये था जो कि नहीं समझा गया है।

रामलला के सूट में भी बाबर, अपने पैर पर कुल्हाड़ी

पूज्यपाद षंकराचार्य जी की ओर से रामजन्मभूमि पुनरुद्धार समिति की ओर से न्यायालय में यह स्थापित किया गया था कि बाबर से इस ढांचे का कोई सम्बन्ध नहीं है और बाबर ने अयोध्या में न तो स्वयं और न ही अपने किसी मातहत से कोई मस्जिद बनवाई। पर रामलला विराजमान की ओर से कहा गया कि बाबर ने मस्जिद बनाई। अतः न्यायालय को यह मानना पड़ा। यदि पूज्य षंकराचार्य जी की बात को माना गया होता और रामलला के सूट में बाबर द्वारा मन्दिर निर्माण की बात न मानी गई होती तो मुसलमानों को कोई पांच एकड़ भूमि नहीं दी जाती।

मुकदमे की प्रतिबद्ध पैरवी के अतिरिक्त एक सुन्दर समझौता प्रारूप लाना ही उल्लेखनीय योगदान है। समझौते में बेहतर समाधान निकल रहा था। समझौते को ही न्यायालय ने निर्णय का आधार बनाया है। समझौते में वही बात थी जो निर्णय आया है बस बाबरी मस्जिद के बदले किसी मस्जिद या जमीन की बात नहीं कही गई थी। यदि समझौता लागू किया गया होता तो चूंकि मुस्लिम पक्ष अपना दावा छोड़ चुके थे अतः उन्हें कोई जमीन न देनी होती। समझौता न होने देने वाले लोग हिन्दू हितैषी और देष की एकता और भाईचारे के पोषक कैसे माने जा सकते हैं?

अयोध्या श्रीरामजन्मभूमि रामालय न्यास

श्रीरामालय न्यास में देश के पच्चीस मूर्धन्य धर्माचार्य हैं जो समग्र सनातनी हिन्दू समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। सरकारी ट्रस्ट एकांगी होगा। पक्षपातपूर्ण होगा और सनातनी भावनाओं के अनुरुप नहीं होगा। हम आदर्श राम नहीं आराध्य राम का बनेगा मंदिर बनायेंगे जो भव्य-दिव्य-विशाल, अद्वितीय और शास्त्रोक्त होगा।


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