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और काशी की "इश्क़ मुबारक" पत्रकारिता

सुरेश प्रताप

 10/Aug/20

 वरिष्‍ठ पत्रकार

बनारस में फिलहाल राजनीति, प्रशासन, स्वास्थ्य विभाग और पत्रकारिता के बीच गलबहियां व लुकाछिपी का खेल चल रहा है, जिसे आप "इश्क मुबारक" पत्रकारिता भी कह सकते हैं. इसका सीधा सा फार्मूला है कि तुम हमारी पीठ थपथपाओ और हम तुम्हारी थपथपाते हैं।

एक दूसरे की कमियों को छिपाना और उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना इसकी पहली शर्त है. इस पत्रकारिता की नींव 2013-14 में ही पड़ गई थी लेकिन कोरोनाकाल में लॉकडाउन के दौरान इसका चेहरा साफ-साफ दिखने लगा है. "दैनिक जागरण" के पत्रकार राकेश चतुर्वेदी की मौत के बाद उठे सवालों की उपेक्षा की जा रही है।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जागरण अखबार में काम करने आने वाले कर्मचारियों की थर्मल स्कैनिंग की जा रही थी कि नहीं ? इसी के जवाब में प्रबंधन द्वारा बरती जा रही लापरवाही का जवाब भी छिपा है. क्योंकि राकेश की मौत के बाद दूसरे ही दिन 7 अगस्त को जागरण में हुई जांच में 90 में 40+6 = 46 कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव पाए गए. बीस जांच कराने से भाग गए। कई पत्रकार साथी पांडेयपुर स्थित कोरोना अस्पताल के वार्ड में अब भर्ती हैं। वहां कोरोना के इलाज की क्या सुविधा उपलब्ध है ? इस पर खबरनवीस अब भी चुप्पी साधे हैं।तो क्या "जागरण प्रबंधन" पत्रकार साथी राकेश चतुर्वेदी की मौत का इंतजार कर रहा था ?

पराड़कर भवन में 9 अगस्त को जिला प्रशासन व स्वास्थ्य विभाग की पहल पर कोरोना जांच शिविर लगाया गया था, जिसमें 68 पत्रकारों की जांच हुई, जिसमें तीन पॉजिटिव पाए गए, पराड़कर भवन के दो स्टाफ और चार अन्य भी पॉजिटिव पाए गए. यह जानकारी पत्रकारों ने खुद सोशल मीडिया पर जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा की फोटो के साथ शेयर की है. सवाल यह है कि पत्रकार राकेश चतुर्वेदी की मौत से पहले पत्रकारों की कोरोना जांच के लिए इस तरह के शिविर कितनी बार लगाए गए थे ? और नहीं लगाए गए तो क्यों ? इसकी जिम्मेदारी किसकी है ? यही है काशी की "इश्क़ मुबारक" पत्रकारिता..!

बनारस के पक्कामहाल यानी पक्काप्पा_संस्कृति के ध्वस्तीकरण अभियान के दौरान भी जन सरोकार से जुड़ी खबरों को दबाने और प्रशासनिक दावे को उछालने की पत्रकारिता खूब हुई. किसी ने यह नहीं पूछा कि बस्ती में मकानों को जमींदोज करने में क्या मानक का पालन किया जा रहा है ? कितने मंदिर इस अभियान की जद में आए हैं ? मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों को मलबे से क्यों पाटा गया ? ललिता घाट की जादुई गली की गुफ़ा को भी मलबे से पाटा दिया गया है, जिसमें ऐतिहासिक राजराजेश्वरी मंदिर है।

150 साल पुरानी कारमाइकल लाइब्रेरी को ध्वस्त करके वहां नीरा राडिया का अस्पताल क्यों खोला गया ? जिसका उद्घाटन खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया और नीरा राडिया के साथ तस्वीरें भी खींचवाई थी. नीरा राडिया कौन हैं ? इसे तो आप जानते ही होंगे. उनके मुद्दे को कभी भाजपा के वरिष्ठ नेता खुद ही राष्ट्रीय स्तर पर उठाते थे. इन सवालों पर पत्रकार चुप्पी इसलिए साधे रहे कि वे खुद "इश्क़ मुबारक" पत्रकारिता की गिरफ्त में आ गए हैं।

बनारस में विपक्षी राजनीतिक दलों की कोई गतिविधि नहीं रह गई है. वे खुद कोमा में चले गए हैं. कुछ स्वयंसेवी संगठन यानी NGO पहले आवाज उठाते थे लेकिन अब वे भी खामोश हो गए हैं. लॉकडाउन के प्रारम्भिक दिनों में एनजीओ शहर में कुछ स्थानों पर बिस्कुट, मॉस्क, भोजन के पैकेट, कुछ आटा, गेहूं, चावल आदि बांटकर अपनी फोटो खिंचवा कर उसे अखबार व सोशल मीडिया में खूब छपवा करके अपने को संवेदनशील होने व वाहवाही लूटे थे. अब वे कहीं समाजसेवा करते हुए दिख नहीं रहे हैं. यह भी "इश्क़ मुबारक" पत्रकारिता का अच्छा उदाहरण है।

ऐसी स्थिति में "विकास" की राजनीति का बिगुल बजाने वाले दल, प्रशासनिक अधिकारी व खबरनवीसों को समाचारों के साथ खेलने का खूब मौका मिल गया जिसका परिणाम लॉकडाउन के चार माह बाद अब हमारे सामने आ रहा है. अब उसे छिपाना या उस पर पर्दा डालना मुश्किल हो गया है. ऐसी कोई चादर नहीं है, जिससे इस सच को छिपाया जा सके।

अभी भी कोई अखबार यह नहीं बता रहा है कि बनारस के कोरोना मरीजों के इलाज के लिए अस्पतालों में क्या सुविधाएं उपलब्ध हैं ? वेंटिलेटर कितना है ? स्वस्थ्यकर्मियों को कोरोना से बचाव के आवश्यक उपकरण मिल रहे हैं कि नहीं ? जबकि जिले में अब तक कोरोना से 81 लोगों की मौत हो चुकी है. व्यापारी वर्ग के लोगों की ज्यादा मौत हुई है, जिसमें 32 व्यापारी वर्ग व उनके सम्पर्की हैं. इसी तपके के लोग सबसे अधिक "हर-हर, घर-घर" करते रहे. व्यापार चौपट हो गया है। दुकानें खुल रही हैं लेकिन कोई ग्राहक नहीं हैं. लेकिन दवा के दुकानों की बिक्री अच्छी है।

बनारसी साड़ी के उद्योग से जुड़े लोगों की हालत खस्ता हो गई है. स्कूल-कालेज बंद पड़े हैं। बेरोजगारी बढ़ी है. बस, किसी तरह लोग जरूरत का सामान ही बाजार से खरीद रहे हैं. अयोध्या में 5 अगस्त के राममंदिर के शिलान्यास के बाद बन रहे "नया भारत" की तस्वीर इतनी भयावह है कि उसके बारे में सोच करके ही रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं. इस परिप्रेक्ष्य में कोई सार्थक रिपोर्ट बनारस से प्रकाशित अखबारों में नहीं छपी है।

यह इसलिए महत्पूर्ण है कि बनारस शहर पीएम नरेन्द्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है और काशी से क्योटो बनने की प्रक्रिया में है. पत्रकारिता की वर्तमान "दशा और दिशा" पर बहस की जरूरत है. पत्रकारिता की आड़ में सत्ता की दलाली करने वालों के भरोसे हम इसे नहीं छोड़ सकते हैं. बनारस की पत्रकारिता की एक महान परम्परा रही है और उस मशाल को जलाए रखने की जरूरत है. इसमें युवा पत्रकार साथी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, क्योंकि उनके अंदर ऊर्जा है।

 


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