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हिमगिरि उत्तमराखण्ड के जन जीवन की जीवंत कहा‍नी : डॉ. अम्बिका प्रसाद गौड़

पूजा कपूर
डिजीटल मीडिया एडिटर
 06/Oct/18

हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले कवि, कथाकार, लेखक और शिक्षाविद डॉ. अम्बिका प्रसाद गौड़ अकादमिक क्षेत्र के साथ ही सृजनात्मक साहित्य के क्षेत्र में भी अपनी एक खास पहचान बनाने की दिशा में अग्रसर हैं, यह देखकर प्रसन्नता होती है। उत्तराखण्ड की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित उनका एक उपन्यास पाठकों द्वारा काफी प्रशंसित हुआ। इसी तरह अंग्रेजी में उनके द्वारा लिखित व्यक्तित्व विकास से सम्बन्धित पुस्तक की भी यथेष्ट प्रशंसा सुनने में आई। समय-समय पर उनकी कविताएँ सुनकर भावित एवं प्रभावित होने का अवसर भी मुझे प्राप्त हुआ है। डॉ. अम्बिका प्रसाद गौड़ हिन्दी और अंग्रेजी में अब तक एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं।

अब इनकी इन कहानियों का संग्रह हिमाद्री के इस पारका पहला भाग पढ़कर मुझे सचमुच हार्दिक प्रसन्नता हुई है। नाम से ही स्पष्ट है कि ये सभी कहानियाँ लेखक की जन्मभूमि उत्तराखण्ड के जन-जीवन से सम्बन्धित हैं। ये लेखक द्वारा गढ़ी गई कहानियाँ नहीं, अपितु लोक में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी बहुधा लोकस्मृति में बसी हुई कहानियाँ हैं जिन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ लेखक ने शब्दों में पिरोया है। ऐसा करने के पीछे लेखक की यह आस्था है कि पर्वतीय अंचल की ये कहानियाँ अपने व्यापक मानवीय सरोकारों के कारण सर्वमान्य के लिए न केवल प्रीतिकार अपितु प्रेरणास्पद सिद्ध हो सकती हैं। इसी आस्था के आवेग में उसने कई कहानियों के अन्त में उनसे प्राप्त संदेश का संक्षिप्त उल्लेख भी कर दिया है, यद्यपि यह कार्य पाठकों के विवेक पर छोड़ देना ही उचित होता है।

इस संग्रह में सम्मिलित कहानियाँ अनेकानेक भावभूमियों पर आधारित हैं तथा इसका संक्षिप्त परिचय पुस्तक के प्रारंभ में प्रस्तावना में मिल जाता है। सचमुच इन 32 कहानियों का वर्गीकरण करना हो तो कदाचित् एक दर्जन वर्ग निर्धारित करने पड़े। इनमें लोक कथाएँ हैं, कहावतों पर आधारित कहानियाँ हैं, सैकड़ों वर्षों से लोक जीवन में दन्तकथा के रूप में जीवित कहानियाँ हैं, बच्चों, युवाओं, स्त्रियों और पुरूषों यहाँ तक की पशुओं के चरित्र एवं व्यवहार की परिचायिका कहानियाँ भी हैं। इस संग्रह में पर्वतीय वीरों की कथाएँ हैं तो शृंगार और वात्सल्य की कहानियाँ भी हैं। भाँति-भाँति की इन सभी कहानियों से पर्वतीय क्षेत्रों के स्त्री-पुरुषों की सहजता, निश्छलता, परिश्रमशीलता, परंपराप्रियता, अन्तर्बाह्य समरस जीवन जीने की उत्कट लालसा तथा अपनी मूल प्रकृति के संरक्षण की चेष्टा आदि विशेषताएँ छनकर पाठकों तक पहुँचती हैं। इतना ही नहीं, इनसे पर्वतीय जीवन शैली, पर्वतीय देवी-देवताओं, मान्यताओं, विश्वासों तथा रीति-रिवाजों के सम्बन्ध में अनायास ही नयी-नयी जानकारियाँ पाठकों को प्राप्त होती हैं। लैंदी’, ‘खबोड़और गलदारजैसे पहाड़ी बोली के सैकड़ों शब्दों का परिचय हो जाता है।

इस संग्रह की कई कहानियाँ इतनी प्रभावपूर्ण हैं कि इनके मूल चरित्र पाठकों की स्मृति में बस जाते हैं। जोगिन की चूड़ियाँएक ऐसी कहानी है। मातृत्व एवं वैराग्य के द्वंद्व में झूलती जोगिन, पूरणगिरि माई, का आत्मसंघर्ष पाठकों को बहुत गहराई तक प्रभावित एवं उद्वेलित करता है। बेटी को जन्म देने का अपराध तो था ही, इसके बाद एक महीना बीतते-बीतते पति की आकस्मिक मृत्यु के लिए भी उसी अभागिनी को जिममेदार बतलाकर अत्याचार एवं प्रताड़ना का जो सिलसिला शुरू हुआ, उससे त्राण पाने के लिए वह नवजात बेटी को गोद में लेकर घर से पलायित हो जाती है। किन्तु हर क्षण चौकन्नी सास के गुप्तचर बेटी को उसकी गोद से छीन लेते तथा उसे मार पीटकर अधमरी दशा में जंगल में छोड़ देते हैं। मौत भी उस पर रहम नहीं करती तथा तमाम प्रकार की ठोकरें खाते हुए वह जोगिन बन जाती है कि उसकी बेटी की शादी होने वाली है। ममता एवं वात्सल्य की जो हिलोर उसके मन में उठती है वह लाख प्रयास के बाद भी दब नहीं पाती और वह बाजार से चूड़ियाँ लेकर लगभग बीस वर्ष के अंतराल पर अपने छूटे हुए घर की देहरी पर पहुँच जाती है। दूसरों की कौन कहे, उसकी अपनी बेटी भी उसकी ममता को तिरस्कृत एवं लांछित कर देती है। दारुण मोहभंग की दशा में वापस लौटते हुए वह पाठकों की पूरी सहानुभूति प्राप्त करती है। कहानी का पाठक अनायास ही दकियानूस समाज के प्राति आक्रोश से भर उठता है।

सिद्धितथा कई अन्य कहानियाँ भी काफी मर्मस्पर्शी बन पड़ी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि इस कहानी संग्रह को हिन्दी जगत में यथेष्ट स्थान प्राप्त होगा।


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