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परदेशियों के लिए अपने गांव की मिट्टी का दर्द

सुरेश प्रताप (वरिष्ठ पत्रकार)

 22/Jan/19

अपनी अपनी जिन्दगी के गिरमिटिया, जो अभिशप्त हैं छोड़ने के लिए घर!

15वां प्रवासी सम्मेलन 21 से 23 जनवरी तक बनारस में आयोजित हो रहा है। उनके स्वागत में पूरे शहर को रंग-विरंगी रोशनी से सजाया गया है। भोजूबीर तिराहे से लगभग पांच किलोमीटर दूर रिंगरोड के पास स्थित ऐढ़े गांव में प्रवासी बंधुओं के लिए अस्थाई टेंट सिटी बनाई गई है, जिसमें सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। ताकि उन्हें जो अपने भाई-बंधु और मां-बाप को अकेले स्वदेश में छोड़ कर रोजी-रोटी की तलाश में विदेश चले गए थे, कोई असुविधा न हो! शासन-प्रशासन का पूरा अलमा उनके स्वागत में लगा है. ताकि मेहमान नवाजी में कोई कमी न रह जाए।

इसी परिप्रेक्ष्य में मुझे पांच वर्ष पूर्व अपने पूर्वजों के गांव की तलाश करते हुए बलिया जिले में मॉरीशस से आए एक नौजवान की कथा याद आ रही है। उन्हें सिर्फ यह पता था कि उनके दादा 100 वर्ष पूर्व बलिया जनपद के बांसडीह तहसील के किसी गांव से गिरमिटिया मजदूर के रूप में मॉरीशस गए थे और उनके गांव के पास सुरहाताल है। जहां जाड़े के दिन में साइबेरिया से पक्षियां आती थीं, तीन-चार महीने तक ये पक्षियां सुरहाताल को ही अपना घर बना लेती थीं। यह उनके प्रजनन का दौर होता था, ताल के आसपास झाड़ियों में वो अंडा देती थीं। फिर अपने बच्चों को आसमान में उड़ने की कला सिखाती थीं।

गर्मी के मौसम की आहट होते ही वो अपने बच्चों के साथ वापस अपने देश चली जाती थीं। मौसम के बारे में उन्हें अच्छी तरह जानकारी थी, हजारों किलोमीटर की दूरी तय करके आसमान में उड़ते हुए आना और फिर वापस जाना कोई आसान काम नहीं है। सभी परिंदे ऐसा जोखिम उठाने का साहस नहीं कर सकते हैं। खैर, यह उनकी मजबूरी भी है उनके मुल्क में जाड़े के दिनों में इतनी कड़ाके की ठंड पड़ती है कि वहां रहना मुश्किल है। यह उनकी जिन्दगी का सवाल है।

मुझे लगता है कि इन परिंदों के बच्चों की जन्मभूमि सुरहाताल है, इसलिए व्यस्क होने के बाद भी ये परिंदे प्रतिवर्ष अपनी माटी-पानी का दर्शन करने ठंड के मौसम में आते हैं। सुरहाताल के आसपास गेहूं-जौ के खेत में सरसो के पीले-पीले फूल से अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य की समां बन जाती है। ये हरे-भरे लहलहाते खेत भी परिंदों के आशियाना बन जाते हैं, फसलों को वो कोई क्षति नहीं पहुंचाते हैं। ये परिंदे किसानों के मित्र हैं, उनकी घर वापसी से ही आसपास के लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि अब गर्मी का मौसम आने वाला है और फसल भी तैयार हो जाएगी। यह है परिंदों और किसानों के सह-अस्तित्व का दर्शन!

हां! तो बात मॉरीशस से आए नौजवान की हो रही थी, जो अपने पूर्वजों के गांव की तलाश में बलिया आए थे, वो सबसे पहले जिलाधिकारी से मिले उसके बाद बांसडीह तहसील पहुंचे। वहां तहसीलदार की मदद से जमीन के पुराने दस्तावेजों को खंगालते हुए अपने दादा का नाम खोज कर उनके गांव की शिनाख्त किए। इसके बाद चल दिए अपने दादा के गांव की तरफ! उनके दादा बांसडीह तहसील के बकवां गांव के रहने वाले थे, जो तहसील से 4-5 किलोमीटर दूर है वो भोजपुरी भाषा भी बोल और समझ रहे थे।

वो बकवां गांव का रास्ता पूछते जा रहे थे, तभी गांव की एक चट्टी पर उन्हें सीपीएम के कार्यकर्ता वाचस्पति चौबे मिल गए। चौबे भी उसी क्षेत्र के टंड़वा गांव के रहने वाले हैं उनके मिल जाने से उनका काम आसान हो गया। चौबे जी के साथ वो बकवां गांव में पहुंचे, ग्रामीणों बातचीत करने पर उनके दादा के घर का भी पता चल गया। उनके छोटे भाई का परिवार अब भी बकवां गांव में ही रहता है।

अपने पूर्वजों के गांव और अपने दादा के परिवार की दयनीय स्थिति देख मॉरिशस से आया नौजवान रोने लगा दूसरी तरफ उनके दादा के भाई के परिवार के लोग भी भयभीत हो गए थे। उन्हें लगा कि जायदाद में यह अपना हिस्सा लेने आया है, इसलिए पहले तो वो बातचीत के लिए ही तैयार नहीं हुए बाद में वाचस्पति चौबे के समझाने पर उनका डर दूर हुआ। वो कोइरी जाति के थे। जमीन भी दो-तीन बीघा ही थी, जिसमें उनके परिवार के लोग सब्जी उगा कर किसी तरह अपनी जीविका चलाते थे. घर की दीवार मिट्टी की थी, जो जर्जर हो चुकी थी।

अपने पूर्वजों के परिवार की दयनीय दशा व गरीबी देख मॉरिशस से आया नौजवान मायूस होकर रोता रहा। उसने उन्हें कुछ रुपये अपना घर बनवाने के लिए दिया कहा, पहले अपना घर बनवाओ और कोई रोजगार शुरू करने के लिए भी उनकी आर्थिक मदद की। कहा, बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल में भेजो और इस वादे के साथ की हम पुन: यहां आएंगे वह वापस चला गया। उन्हें देखने के लिए गांव के लोगों की भीड़ लग गई थी उनके दादा गरीबी की हालत में ही गिरमिटिया मजदूर बन कर मॉरिशस गए थे और 100 वर्ष बाद भी यहां भारत में उनके परिवार के लोग अब भी उसी गरीबी के झंझावात व दलदल में फंसे हैं।

तो यह है मॉरीशस से आए एक भारतीय प्रवासी की कथा! जिसके दादा गिरमिटिया थे। हममें से अधिकांश लोग अपनी-अपनी जिन्दगी के गिरमिटिया हैं! जो अपना घर और गांव छोड़ने के लिए अभिशप्त हैं। यह कथा हमें बलिया के टाउन डिग्री कालेज के फिजिक्स के अध्यापक और हमारे बड़े भाई सुभाष चंद्र सिंह ने बताई थी। हमने सोचा की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह कथा प्रासंगिक है, इसलिए इसे लिखा हूं।


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