MENU

जब "दैनिक जागरण" के प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन से प्रेस कांफ्रेंस में सुरेश प्रताप की हुई बहस



 12/Aug/20

क्या मजिठिया आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए जिन पत्रकार व कर्मचारियों ने अपने मीडिया संस्थान के मालिकों पर मुकदमा किया है, वह "नमकहरामी" हैं? क्या कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप व लॉकडाउन के दौरान किसी संस्थान में बचाव कार्य के संबंध में सवाल पूछना अपराध है ? क्या शासन-प्रशासन व स्वास्थ्य विभाग की खामियों को रेखांकित करने का किसी को अधिकार नहीं है?

ये तीन सवाल हैं, जिसे आपके चिंतन-मनन के लिए हम यहीं छोड़ रहे हैं. इस पर हम आगे चर्चा करेंगे. फिलहाल बीस साल पहले हुई एक घटना का हम यहां जिक्र करेंगे. क्योंकि कुछ साथियों ने जो बहस छेड़ दी है, उस परिप्रेक्ष्य में यह घटना महत्वपूर्ण है. संदर्भ बीसवीं सदी के खत्म होने और 21वीं सदी के आने का है. केंद्र में एनडीए की सरकार थी और अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री थे. तब 21वीं सदी के सूरज की पहली किरण का दशाश्वमेध घाट पर भव्य स्वागत करने और जलसा आयोजित करने का कार्यक्रम बना था. इसकी योजना ऋषिकेष के स्वामी चिदानंद ने बनाई थी. वे 21वीं सदी के सूरज की पहली किरण का स्वागत करते हुए विश्व को "शांति का संदेश" देना चाहते थे. और उसी समय से दशाश्वमेध घाट पर भव्य गंगा आरती का सिलसिला भी शुरू हुआ.

स्वामी चिदानंद के साथ उनके चार्टर विमान से "दैनिक जागरण" के प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन और प्रमुख उद्योगपति वीके मोदी भी बनारस आए थे. संपादक जी का स्वागत करने के लिए बाबतपुर हवाईअड्डे पर जागरण के समाचार संपादक राघवेंद्र चड्ढा, वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र रंगप्पा गए थे. सारनाथ के महाबोधि सोसायटी में उसी दिन उनकी आयोजित प्रेस कांफ्रेस को कवर करने की ड्यूटी हमारी लगी थी. जागरण के वरिष्ठ पत्रकार सुशील श्रीवास्तव भी सारनाथ गए थे.

30 दिसम्बर, 2000..! शाम को लगभग 6 बज रहे थे. महाबोधि सोसायटी के परिसर में स्वामी चिदानंद की प्रेस कांफ्रेस के लिए कुर्सियां लगी थीं. उनके साथ संपादक नरेंद्र मोहन और बीके मोदी भी बैठे थे. सबसे पहले स्वामी चिदानंद ने एक विज्ञप्ति पत्रकारों को दी. फिर उन्होंने अपनी बात कहना शुरू किया।

पत्रकारिता के हमारे गुरु और बीएचयू पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर अंजन कुमार बनर्जी ने मुझे सिखाया था कि कभी भी प्रेस कांफ्रेंस में वक्ता को लम्बा भाषण मत देने देना. अपना सवाल जरूर पूछना और वह चाहे जितने बड़े व्यक्ति हों, उनसे डरना मत. डर गए तो सवाल नहीं पूछ पाओगे. मुझे अपने गुरु की बात याद आ गई. हमने तत्काल हस्तक्षेप किया और स्वामी जी से पूछा, आपने जो विज्ञप्ति दी है, इसके अलावा भी कुछ कहना है क्या?

उन्होंने कहा कि इसमें सभी बातें कह दी गई हैं. हमने कहा, आप विश्व को शांति का संदेश देना चाहते हैं लेकिन आपकी विज्ञप्ति तो भेदभाव, अशांति और विभाजन का संदेश दे रही है. मेरी बात सुनते ही स्वामी जी गुस्से में आ गए. वे कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गए. और तमतमाते हुए पूछे आप ऐसा कैसे कह सकते हैं ? हमने कहा, पहले आप कुर्सी पर बैठ जाइए. इतना गुस्से में क्यों हैं? शांति से बात करिए. हम समझ रहे थे कि हमारा सवाल उन्हें उद्देलित कर दिया था.

हमने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा कि विश्व को शांति का संदेश देने के लिए आपने जो कमेटी बनाई है, उसमें सिर्फ तीन धर्म के प्रतिनिधि हैं. यह आपकी विज्ञप्ति बता रही है. हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म..! बाकी ईसाई, मुस्लिम, सिख आदि धर्म के प्रतिनिधियों को आपने क्यों छोड़ दिया है ? वे भी तो आपको शांति का अपना संदेश दे सकते हैं ? स्वामी जी इतना सुनते ही हड़बड़ा गए और पुन: अपनी कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गए. फिर हमने उनसे अनुरोध किया, आप बैठ जाइए. इतना उत्तेजित क्यों हो रहे हैं ?

स्वामी जी अपनी बात जितना स्पष्ट करना चाहते थे, उतना ही उलझते जा रहे थे. उनके बगल में बैठे जागरण के प्रधान संपादक नरेंद्र मोहन और वीके मोदी चुपचाप देख रहे थे. इसी बीच हमारे संपादक जी ने हस्तक्षेप किया. बोले, आपके सवाल का जवाब हम देते हैं. आपको कैसा जवाब चाहिए राजनीतिक या आध्यात्मिक ?

हमने कहा, हमारा काम सवाल पूछना है. जवाब आपको देना है. उन्होंने कहा, हम राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों जवाब देंगे. हमने कहा, ठीक है. संपादक जी ने जवाब दिया. उसके बाद पूछे, क्या आप मेरे जवाब से संतुष्ट हैं ? मैने कहा, संतुष्ट व असंतुष्ट होना मेरा काम नहीं है. मैं रिपोर्टर हूं और मेरा काम सवाल पूछना है. आपने जो जवाब दिया है, वह खबर है. और कल अखबार में यही छपेगा. प्रेस कांफ्रेस खत्म हो गई.

उसके बाद लोग काफी चाय पीने लगे. हम भी एक किनारे खड़े होकर चाय पी रहे थे. संपादक जी ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान उनके बगल में उनकी अटैची लेकर खड़े राजेंद्र रंगप्पा और राघवेंद्र चड्ढा को बुलाकर पूछा कि जब प्रेस कांफ्रेंस हो रही थी तो आप लोग खड़े क्यों थे? पत्रकारों के साथ बैठे क्यों नहीं थे? उन्होंने कहा कि अपने अखबार के एक वरिष्ठ साथी प्रेस कांफ्रेंस में बैठे थे. उन्होंने पूछा, कौन था? तब चड्ढा जी और रंगप्पा दौड़े-दौड़े मेरे पास आए और कहे कि संपादक जी बुला रहे हैं।

हम अपनी चाय छोड़कर संपादक जी के पास गए. संपादक जी मेरी पीठ पर हाथ रखे सोसायटी के लॉन में भीड़ से अलग ले गए. कुछ बातें उन्होंने मुझसे कही. इधर, यह खबर मोबाइल फोन से जागरण कार्यालय में और स्थानीय संपादक वीरेंद्र कुमार तक पहुंच गई. उन्हें बताया गया कि सुरेश प्रताप ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान संपादक जी से बहस शुरू कर दिया और वे बहुत गुस्से में हैं. हंगामे के कारण प्रेस कांफ्रेंस खत्म हो गई है. उधर, संपादक जी ने मुझसे जो कुछ कहा, उसे हमने किसी को वहां नहीं बताया।

सारनाथ से हम पत्रकार सुशील श्रीवास्तव के साथ "जागरण" कार्यालय आ गए. शाम का समय था और प्रेस कांफ्रेंस की खबर जल्दी देने की मुझे चिंता थी. इधर, अखबार के दफ्तर में यह घटना चर्चा का विषय बनी रही. तब जागरण का कार्यालय अंधरापुल के पास पुराने भवन में ही था. हम प्रेस कांफ्रेस की पूरी खबर अपने कम्प्यूटर पर टाइप किए और उसकी कॉपी लक्ष्मीनाथ संड को चेक करने के लिए दिए. उन्होंने कहा, ठीक है, इसे भेज दो. तब यह नियम बना था कि संपादक जी से संबंधित कोई भी खबर पहले केंद्रीय कार्यालय को भेजी जाएगी, उसके बाद ओके होने पर छपेगी.

उस समय जागरण में समाचार संपादक यशवंत सिंह थे. हमने अपनी खबर उन्हें पढ़ने को दी और कहा कि भाई साहब इसकी भाषा की अशुद्धियां ठीक कर दीजिए. उन्होंने पूरी खबर पढ़ी और कुछ सुधार करके बोले कि ठीक है, इसे केंद्रीय कार्यालय को भेजवा दो. तो इस तरह प्रेस कांफ्रेंस की खबर केंद्रीय कार्यालय को भेज दी गई. कुछ देर बाद वहां से निर्देश आया कि इस खबर को चित्र के साथ जागरण के सभी संस्करणों के प्रथम पेज पर लीड खबर बनाया जाए.

प्रेस काफ्रेंस के दूसरे दिन

प्रेस कांफ्रेंस के दूसरे दिन आफिस में 11 बजे होने वाली बैठक में भाग लेने हम आए तो स्थानीय संपादक वीरेंद्र कुमार जी ने मुझे बुलवाया और महाबोधि सोसायटी में जो कुछ घटित हुआ था, उसके बारे में पूछे. उन्हें घटना का एक पक्ष तो पता था लेकिन प्रेस कांफ्रेंस के बाद नरेंद्र मोहन जी ने जो कुछ मुझसे कहा था, उसकी उन्हें जानकारी नहीं थी.

हमने संपादक जी को बताया कि उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा था कि "बहुत अच्छा सवाल किए. जागरण का रिपोर्टर सवाल करे और प्रेस कांफ्रेंस करने वाला कुर्सी छोड़कर खड़ा न हो जाए तो वह रिपेर्टर कैसा ?" इतना सुनकर हमारे संपादक वीरेंद्र जी खुश हो गए. उन्होंने कहा कि वह विद्वान हैं और काफी पुस्तकें पढ़ते हैं. हमने कहा, हां भाई साहब यदि वह नहीं होते तो स्वामी जी तो हड़बड़ा गए थे.

नरेंद्र मोहन के निधन के बाद

"जागरण" के पुराने कार्यालय से हम लोग नदेसर पर बने नए भवन में आ गए थे. तब "जागरण" की एक हाउस मैगजिन निकलती थी, जो सिर्फ कर्मचारियों के बीच ही बंटती थी. नरेन्द्र मोहन जी के निधन के बाद जागरण के सभी केंद्रों से उनके बारे में "हाउस मैगजिन" में संस्मरण लिखने को कहा गया था. तब यह पूरी घटना उस पत्रिका में छपी थी. इस टिप्पणी के साथ कि प्रधान संपादक जी हमेशा अपने रिपोर्टरों को सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करते थे. और खुद भी उनके सवालों का जवाब देते थे. वह पत्रकारिता के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध थे.

पत्रकारिता की वर्तमान दशा और दिशा

बिकाऊ और दलाल मीडिया की पहरेदारी करने वालों दूसरे पर सवाल खड़ा करने से पहले खुद अपने गिरहबान में झांककर देखो, तब पता चल जाएगा कि सच क्या है? नीरा राडिया के साथ फोटो खींचवाने वाले "योगी" का जयकारा लगाने वालों को उनका "इश्क़ मुबारक"! आप "हर-हर और घर-घर" की धुन पर नृत्य करते रहिए और हम सवाल पूछते रहेंगे. हम पत्रकार हैं और पत्रकार का काम किसी की धुन पर नृत्य करना नहीं है. हमारा काम सवाल पूछना है और सवाल पूछने को "नमकहरामी" नहीं कहते हैं.

लोकतंत्र में शासन-प्रशासन या किसी भी संस्थान की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाना अपराध नहीं है, बल्कि संवैधानिक अधिकार है. जब तक देश में संविधान का शासन है, तब तक सवाल तो पूछे ही जाएंगे. जिन्हें मालिक का शेर बनकर दुम हिलाना है, वे दुम हिलाते रहें, उन्हें उनका "इश्क़ मुबारक" ! यह वक्त खुलकर बोलने का है.

बनारस में एक पत्रकार साथी की कोरोना से लापरवाही के कारण मौत हो गई और कुछ लोग उससे पैदा हुए सवालों पर "वफादारी" के नाम पर पानी डालने की कोशिश कर रहे हैं. बनारस में अब कोरोना से मरने वालों की संख्या 85 हो गई है. कोरोनाकाल में जो नियम आम जनता पर लागू होता है, वही सभी संस्थानों पर भी लागू होगा. इसमें किसी को छूट नहीं दी जा सकती है. यदि सात कर्मचारियों के कोरोना पाॅजिटिव मिलने पर कचहरी दो दिन के लिए बंद हो सकती है तो 46 कर्मचारियों के पाॅजिटिव मिलने पर किसी संस्थान को क्यों नहीं बंद किया जा सकता है ? यह वक्त खुलकर बोलने का है. बोलेंगे तो बचेंगे।


इस खबर को शेयर करें

Leave a Comment

9094


सबरंग